
BJP: हाल ही में भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा द्वारा दिए गए बयानों ने देश की सर्वोच्च न्यायपालिका, सुप्रीम कोर्ट, पर एक नया राजनीतिक विवाद खड़ा कर दिया है। ये बयान उस समय आए जब सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधायिका द्वारा दोबारा पारित किए गए विधेयकों को तीन महीने के भीतर मंजूरी देने की समय-सीमा तय कर दी थी। इस फैसले को लेकर भाजपा के कुछ नेताओं ने न्यायपालिका की सीमाओं को लांघने का आरोप लगाया है।
BJP: निशिकांत दुबे के विवादित बयान
भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने समाचार एजेंसी एएनआई से बातचीत करते हुए कहा कि अगर हर निर्णय सुप्रीम कोर्ट को ही लेना है, तो संसद और राज्य विधानसभाओं को बंद कर देना चाहिए। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट पर “चेहरा देखो, कानून बताओ” नीति अपनाने का आरोप लगाया। उन्होंने समलैंगिकता को अपराध मानते हुए कोर्ट के फैसले पर भी सवाल खड़े किए, जिसमें धारा 377 को हटाकर दो वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों को वैध किया गया था।
दुबे ने राम मंदिर, काशी और मथुरा विवादों का हवाला देते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट दस्तावेज मांगती है, लेकिन जब मस्जिदों की बात आती है, तो वह कहती है कि दस्तावेज कैसे दिखाएंगे। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट धार्मिक तनाव भड़काने का कारण बन रही है।
BJP: दिनेश शर्मा का समर्थन
भाजपा नेता और सांसद दिनेश शर्मा ने भी सुप्रीम कोर्ट की आलोचना करते हुए कहा कि राष्ट्रपति को कोई चुनौती नहीं दे सकता क्योंकि राष्ट्रपति सर्वोच्च हैं। उन्होंने कहा कि संविधान में विधायिका और न्यायपालिका की भूमिकाएं स्पष्ट हैं, और कोई भी संसद को निर्देश नहीं दे सकता।
BJP: भाजपा का स्पष्ट रुख
इन बयानों के बाद विपक्षी दलों ने भाजपा पर जोरदार हमला बोला। AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने दुबे को ‘ट्यूबलाइट’ कहकर तंज कसा और कहा कि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय ही कानून होता है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपील की कि ऐसे सांसदों को रोका जाए, जो न्यायपालिका को धमका रहे हैं।
कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने भी भाजपा नेताओं के बयानों को संविधान विरोधी बताया और आरोप लगाया कि भाजपा सुप्रीम कोर्ट को कमजोर करने की कोशिश कर रही है।
हालांकि, इन विवादित बयानों से भाजपा नेतृत्व ने खुद को अलग कर लिया है। पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘एक्स’ पर बयान जारी करते हुए कहा कि पार्टी इन बयानों से सहमत नहीं है और इन्हें पूरी तरह खारिज करती है। उन्होंने स्पष्ट किया कि ये नेताओं के व्यक्तिगत विचार हैं, पार्टी की राय नहीं। नड्डा ने कहा, “भारतीय जनता पार्टी हमेशा न्यायपालिका का सम्मान करती आई है और उसके आदेशों को सहर्ष स्वीकार करती है।”
संवैधानिक मर्यादाओं की बहस
यह विवाद एक बड़े सवाल को जन्म देता है—क्या संसद और न्यायपालिका के बीच की सीमाएं धुंधली हो रही हैं? क्या विधायिका न्यायपालिका की भूमिका को चुनौती दे सकती है? सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई समय-सीमा का उद्देश्य विधायी प्रक्रियाओं को प्रभावी बनाना था, न कि राष्ट्रपति या राज्यपाल के अधिकारों को कम करना।
संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान में स्पष्ट रूप से तीन स्तंभों—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—के बीच संतुलन बनाए रखने की बात कही थी। सुप्रीम कोर्ट को अनुच्छेद 142 के तहत विशेष अधिकार दिए गए हैं ताकि वह न्याय सुनिश्चित कर सके, भले ही इसके लिए मौजूदा कानूनों से परे जाकर आदेश देने हों।
निष्कर्ष
वर्तमान विवाद यह दर्शाता है कि देश में संस्थाओं के बीच संतुलन बनाए रखना कितना जरूरी है। जहां सांसदों को अपनी राय रखने का अधिकार है, वहीं न्यायपालिका की स्वतंत्रता और गरिमा बनाए रखना भी लोकतंत्र के लिए उतना ही आवश्यक है। न्यायपालिका पर राजनीतिक हमला न केवल संविधान की भावना के खिलाफ है, बल्कि इससे जनता का न्याय व्यवस्था में विश्वास भी डगमगा सकता है।
प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा नेतृत्व ने समय रहते स्थिति संभालने की कोशिश की है, लेकिन यह मुद्दा यह संकेत देता है कि सत्ताधारी दलों को अपने नेताओं को संविधान और लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति संवेदनशील बनाना होगा। संस्थाओं के बीच टकराव नहीं, सहयोग ही लोकतंत्र की असली पहचान है।
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