Karnataka: न्यायिक सटीकता पर सवाल: कर्नाटक हाई कोर्ट ने गैर-मौजूद फैसलों का हवाला देने पर न्यायाधीश के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश की

Karnataka: कानूनी मामलों में सटीकता और विश्वसनीयता अत्यंत महत्वपूर्ण होती है, विशेष रूप से जब बात किसी अदालत के फैसले की हो। हाल ही में, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक सिविल जज द्वारा गैर-मौजूद सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसलों का हवाला देने के मामले में गंभीर चिंता जताई है। न्यायमूर्ति आर. देवदास ने इस घटना को “चिंताजनक” करार देते हुए आगे की जांच की आवश्यकता बताई।
क्या है पूरा मामला?
यह मामला एक गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी समान कैपिटल और एक रियल एस्टेट कंपनी मंत्री डिवेलपर्स के बीच कानूनी विवाद से जुड़ा हुआ है। मंत्री डिवेलपर्स ने 2018 में लिए गए ऋण पर चूक के बाद नीलामी नोटिस को चुनौती देने के लिए ट्रायल कोर्ट में याचिका दायर की थी। समान कैपिटल ने इस प्रक्रिया का विरोध करते हुए अदालत के क्षेत्राधिकार को चुनौती दी।
इस मामले की सुनवाई बेंगलुरु की नौवीं अतिरिक्त सिविल एवं सत्र न्यायाधीश के न्यायालय में हुई, जहां न्यायाधीश ने समान कैपिटल की आपत्ति को खारिज कर दिया और कहा कि उनके पास इस मामले की सुनवाई करने का अधिकार है। उन्होंने अपने फैसले में तीन कानूनी मिसालों (precedents) का हवाला दिया, लेकिन बाद में यह सामने आया कि ये फैसले वास्तव में मौजूद ही नहीं थे।
कौन-कौन से फर्जी फैसलों का हवाला दिया गया?
न्यायाधीश ने निम्नलिखित तीन मामलों का हवाला दिया था:
- M/s Jalan Trading Co Pvt Ltd बनाम Millenium Telecom Ltd (सिविल अपील संख्या 5860/2010) – यह फैसला कथित रूप से सुप्रीम कोर्ट का था।
- Kvalrner Cimentation India बनाम Achil Builders (सिविल अपील संख्या 6074/2018) – यह भी एक गैर-मौजूद सुप्रीम कोर्ट का फैसला बताया गया।
- SK Gopal बनाम UNI Deritend Ltd (CS 1114/2016) – इसे दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला बताया गया।
जब समान कैपिटल के वरिष्ठ वकील प्रभुलिंग नवदगी ने इस पर आपत्ति जताई और रिकॉर्ड की जांच करवाई, तो पता चला कि ये तीनों मामले कभी अदालत में आए ही नहीं थे।
कर्नाटक हाई कोर्ट की प्रतिक्रिया
न्यायमूर्ति आर. देवदास ने इस घटना को न्यायिक विश्वसनीयता के लिए गंभीर चुनौती बताया और कहा कि न्यायाधीशों द्वारा दिए गए फैसले पूर्ण सटीकता पर आधारित होने चाहिए। उन्होंने कोर्ट रजिस्ट्री को निर्देश दिया कि इस मामले को मुख्य न्यायाधीश एनवी अंजारिया के समक्ष कार्रवाई के लिए प्रस्तुत किया जाए।
उन्होंने कहा,
“सबसे चिंताजनक बात यह है कि सिविल कोर्ट के न्यायाधीश ने दो ऐसे फैसलों का उल्लेख किया, जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय या किसी अन्य अदालत ने कभी नहीं दिया। वादी (Plaintiffs) के वरिष्ठ वकील ने स्पष्ट रूप से कहा कि उन्होंने इस प्रकार के कोई निर्णय अदालत के सामने प्रस्तुत नहीं किए थे।”
क्या कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) है जिम्मेदार?
इस मामले में जब वकीलों से पूछा गया कि यह गलती कैसे हुई, तो उन्होंने इसके लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence – AI) को दोषी ठहराया।
प्रभुलिंग नवदगी ने अदालत को बताया कि कभी-कभी AI आधारित टूल्स, जैसे कि ChatGPT, नकली या गैर-मौजूद परिणाम (Fake Citations) उत्पन्न कर सकते हैं। उन्होंने कहा,
“यह कभी-कभी तब होता है जब कोई व्यक्ति कृत्रिम बुद्धिमत्ता और चैटबॉट्स का उपयोग करता है। AI कभी-कभी चीजों को गढ़ सकता है। मैं नहीं जानता कि इस मामले में क्या हुआ, लेकिन ये निर्णय मौजूद नहीं हैं।”
हालांकि, न्यायाधीश ने इस तर्क को सीधे स्वीकार नहीं किया और इसे न्यायपालिका की विश्वसनीयता के लिए गंभीर खतरा बताया।
क्या होगी अगली कार्रवाई?
अब जब इस मामले का खुलासा हो चुका है, तो कर्नाटक उच्च न्यायालय ने इस घटना की गहन जांच करने का निर्देश दिया है। इस मामले में यह देखा जाएगा कि:
- क्या यह न्यायाधीश की जानबूझकर की गई गलती थी या अनजाने में हुई चूक थी?
- यदि यह AI द्वारा उत्पन्न नकली उद्धरण थे, तो क्या न्यायाधीश ने उनका सत्यापन नहीं किया?
- न्यायपालिका की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए?
क्या सीखने की जरूरत है?
यह मामला कानूनी पेशे में सटीकता और सत्यापन की अनिवार्यता को रेखांकित करता है।
- न्यायाधीशों को तकनीक के प्रति सतर्क रहना होगा – AI और डिजिटल टूल्स कानूनी प्रक्रिया को आसान बना सकते हैं, लेकिन उनकी सीमाओं को समझना और तथ्य-जांच (Fact-Checking) करना भी आवश्यक है।
- कानूनी पेशेवरों को उचित शोध करना चाहिए – केवल किसी टेक्स्ट या चैटबॉट द्वारा दिए गए संदर्भों पर भरोसा करना घातक साबित हो सकता है।
- न्यायपालिका की विश्वसनीयता सर्वोपरि है – यदि अदालतों में गलत उद्धरणों के आधार पर निर्णय दिए जाने लगे, तो इससे जनता का विश्वास कमजोर हो सकता है।
निष्कर्ष
कर्नाटक हाई कोर्ट का यह फैसला न्यायपालिका में सटीकता और विश्वसनीयता सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह घटना दर्शाती है कि किसी भी अदालत के फैसले को अंतिम रूप देने से पहले, संदर्भित मामलों और कानूनी मिसालों की गहन जांच आवश्यक है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता का प्रयोग सावधानी से करना चाहिए, ताकि न्यायपालिका की गरिमा और निष्पक्षता बनी रहे।
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